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पिछले दो वर्षों में डीआरडीओ ने 155 मिलीमीटर कैटेगरी के चार अलग-अलग प्रकार के गोला-बारूद का सफल परीक्षण किया है। जिसमें उच्च विस्फोटक (High Explosive), धुआं उत्पन्न करने वाले (Smoke), और दोहरे उद्देश्य वाले उन्नत पारंपरिक हथियार (ड्यूल पर्पस इम्प्रूव्ड कन्वेंशनल म्युनिशन-DPICM) राउंड शामिल हैं। सेना ने इन सभी को इस्तेमाल के योग्य माना है। वहीं अब DRDO ने नवंबर 2025 में अंतिम यूजर ट्रायल की योजना बनाई है...
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📍नई दिल्ली | 1 month ago

155mm artillery shells: भारत अपनी रक्षा जरूरतों को पूरा करने और विदेशी निर्भरता को कम करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठा रहा है। रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) के नेतृत्व में चल रही स्वदेशी तोपखाने की गोला-बारूद परियोजना अब अपने अंतिम चरण में पहुंच चुकी है। इस परियोजना के तहत 155 मिलीमीटर के चार तरह के गोला-बारूद का सफलतापूर्वक ट्रायल्स पूरे किए जा चुके हैं, और ये भारतीय सेना की सभी जरूरतों को पूरा करते हैं। नवंबर 2025 में आखिरी यूजर ट्रायल्स होने की उम्मीद है, जिसके बाद यह गोला-बारूद सेना के लिए बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए तैयार होगा। इस परियोजना में रिलायंस इन्फ्रास्ट्रक्चर और यंत्र इंडिया लिमिटेड जैसी कंपनियां डीआरडीओ के साथ मिलकर काम कर रही हैं। यह परियोजना न केवल भारत की रक्षा क्षमता को मजबूत करेगी, बल्कि वैश्विक बाजार में रक्षा निर्यात की संभावनाओं को भी खोलेगी।

155mm artillery shells: स्वदेशी गोला-बारूद का महत्व

भारत की डिफेंस पॉलिसी में आत्मनिर्भरता का प्रमुख स्थान रहा है। वर्तमान में भारतीय सेना को अपने तोपखाने के लिए गोला-बारूद के लिए काफी हद तक विदेशी सप्लायर्स पर निर्भर रहना पड़ता है। यह न केवल महंगा पड़ता है, बल्कि युद्ध की परिस्थितियों में सप्लाई चेन के प्रबावित होने का भी जोखिम रहता है। डीआरडीओ की इस परियोजना का उद्देश्य इन चुनौतियों को दूर करना और भारत को गोला-बारूद उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाना है।

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पिछले दो वर्षों में डीआरडीओ ने 155 मिलीमीटर कैटेगरी के चार अलग-अलग प्रकार के गोला-बारूद का सफल परीक्षण किया है। जिसमें उच्च विस्फोटक (High Explosive), धुआं उत्पन्न करने वाले (Smoke), और दोहरे उद्देश्य वाले उन्नत पारंपरिक हथियार (ड्यूल पर्पस इम्प्रूव्ड कन्वेंशनल म्युनिशन-DPICM) राउंड शामिल हैं। सेना ने इन सभी को इस्तेमाल के योग्य माना है। वहीं अब DRDO ने नवंबर 2025 में अंतिम यूजर ट्रायल की योजना बनाई है।

इनमें हाई एक्सप्लोसिव राउंड्स दुश्मन के ठिकानों को नष्ट करने के लिए उपयोग किए जाते हैं। जबकि स्मोक राउंड्स धुआं पैदा करने वाले गोले हैं, जो युद्ध के मैदान में विजिबिलिटी को कम करने और सेना की फॉर्मेशन स्थिति को छिपाने में मदद करते हैं। वहीं, ड्यूल पर्पस इम्प्रूव्ड कन्वेंशनल म्युनिशन (डीपीआईसीएम) राउंड बड़े क्षेत्र को निशाना बनाने के लिए डिजाइन किए गए हैं, जो पैदल सेना और हल्के बख्तरबंद वाहनों के खिलाफ असरदार हैं।

इन सभी गोलों का परीक्षण भारतीय सेना की कठिन मानकों के अनुसार किया गया है, और ये सभी अपेक्षाओं पर खरे उतरे हैं। सूत्रों के अनुसार, ये गोले न केवल भारतीय सेना की जरूरतों को पूरा करते हैं, बल्कि कुछ मामलों में विदेशी गोलों से भी बेहतर प्रदर्शन करते हैं।

बड़े पैमाने पर उत्पादन की मंजूरी

डीआरडीओ के सूत्रों ने बताया कि इस परियोजना का डेवलपमेंट फेज लगभग पूरा हो चुका है। अब यह परियोजना यूजर ट्रायल फेज में प्रवेश कर रही है, जो नवंबर 2025 में होने की संभावना है। इन परीक्षणों में भारतीय सेना के विशेषज्ञ गोला-बारूद की प्रभावशीलता, विश्वसनीयता और सुरक्षा का मूल्यांकन करेंगे। यदि ये गोले आखिरी ट्रायल्स में सफल रहते हैं, तो इन्हें बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए मंजूरी दी जाएगी।

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इस परियोजना में भारतीय सेना को शुरू से ही शामिल किया गया है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि गोला-बारूद उनकी विशिष्ट जरूरतों के अनुसार डेवलप हों। एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “हमने सेना के साथ मिलकर काम किया है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि गोला-बारूद उनकी रणनीतिक और तकनीकी जरूरतों को पूरा करता हो। यूजर ट्रायल इस प्रक्रिया का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण चरण है।”

DRDO संग निजी और सार्वजनिक कंपनियों की साझेदारी

इस गोला-बारूद को ‘डिज़ाइन-कम-प्रोडक्शन पार्टनर’ (DcPP) मॉडल के तहत बनाया गया है। इसमें दो प्रमुख साझेदार हैं, इनमें रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर की सहयोगी कंपनी जय एम्युनिशन लिमिटेड और सरकारी स्वामित्व वाली यंत्र इंडिया लिमिटेड शामिल हैं। दोनों कंपनियां पिछले दो सालों से इस परियोजना पर DRDO की आर्मामेंट रिसर्च एंड डेवलपमेंट एस्टैब्लिशमेंट (ARDE), पुणे के साथ मिलकर गोला-बारूद के प्रोटोटाइप विकसित कर रही हैं।

रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर इस क्षेत्र में इतिहास रचने जा रही है, क्योंकि यह पहली निजी भारतीय कंपनी बन गई है जिसने पूरी तरह से स्वदेशी तकनीक के जरिए 155 मिमी के चार प्रकार के गोला-बारूद तैयार किए हैं। रिलायंस के एक प्रवक्ता ने बताया कि विकास का काम पूरा हो चुका है और कंपनी अब उत्पादन शुरू करने के लिए तैयार है। 10 से अधिक भारतीय कंपनियों को सप्लाई चेन में शामिल किया गया है ताकि बड़े पैमाने पर निर्माण सुनिश्चित हो सके।

10,000 करोड़ रुपये के गोला-बारूद

भारत में तोपखाने के गोला-बारूद की मांग लगातार बढ़ रही है। अनुमान है कि अगले 10 वर्षों में यह 10,000 करोड़ रुपये तक पहुंच सकती है। इसके अलावा, अगर ये गोला-बारूद विदेशी बाजारों में निर्यात होते हैं तो आय कई गुना बढ़ सकती है। केपीएमजी की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय सेना का गोला-बारूद पर वार्षिक खर्च 2023 में 7,000 रुपये करोड़ था, जो 2032 तक 12,000 रुपये करोड़ तक पहुंच सकता है।

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रिलायंस अपनी दीर्घकालिक रक्षा रणनीति के तहत रत्नागिरी, महाराष्ट्र में ‘धीरूभाई अंबानी डिफेंस सिटी’ (DADC) नाम से एक ग्रीनफील्ड एम्युनिशन और एक्सप्लोसिव्स मैन्युफैक्चरिंग यूनिट स्थापित कर रही है। इस परियोजना में 5,000 करोड़ रुपये का निवेश किया जा रहा है। कंपनी को रत्नागिरी के वटाड इंडस्ट्रियल एरिया में 1,000 एकड़ जमीन आवंटित की गई है, जो भारत में निजी क्षेत्र द्वारा रक्षा क्षेत्र में सबसे बड़ा ग्रीनफील्ड प्रोजेक्ट है। वहीं, हाल ही में रिलायंस डिफेंस ने जर्मनी की कंपनी Rheinmetall AG के साथ एक रणनीतिक साझेदारी की घोषणा की है। इस साझेदारी के तहत रिलायंस Rheinmetall को मीडियम और लार्ज कैलिबर गोला-बारूद के लिए एक्सप्लोसिव और प्रोपेलेंट्स की सप्लाई करेगी।

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