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📍नई दिल्ली | 3 months ago

General Zorawar Singh: करीब दो सौ साल पहले, 1841 में, जब डोगरा सेनापति जनरल जोरावर सिंह (General Zorawar Singh) ने तिब्बत (Tibet) की ओर अपना साहसिक सैन्य सफर शुरू किया था, तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि उनकी यह गाथा आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनेगी। उसी विरासत को याद करने के लिए भारतीय सेना (Indian Army) ने दिल्ली कैंट (Delhi Cantt) स्थित मानेकशॉ सेंटर (Manekshaw Centre) में एक अहम संगोष्ठी आयोजित की। जिसमें उनकी वीरता और हिमालय (Himalayas) की ऊंचाइयों में लड़ी गई लड़ाइयों को याद किया।

General Zorawar Singh: Indian Army salutes the mountain war hero who defined high-altitude warfare

“जनरल जोरावर सिंह: अप, क्लोज एंड पर्सनल,” कार्यक्रम को जम्मू-कश्मीर राइफल्स (Jammu and Kashmir Rifles) और सेंटर फॉर लैंड वॉरफेयर स्टडीज (Centre for Land Warfare Studies – CLAWS) ने मिलकर आयोजित किया। इसमें उन कहानियों की याद ताजा की गई, जब जनरल जोरावर सिंह (Zorawar Singh Legacy) ने हिमालय के दुर्गम रास्तों पर अपने साहस और सूझबूझ से इतिहास रचा था। और कैसे अपनी रणनीतियों के जरिए भारतीय सेना के लिए माउंटेन वॉरफेयर (Mountain Warfare India) की नींव रखी, जिसका प्रभाव आज भी सेना में देखने को मिलता है।

General Zorawar Singh ने बढ़ाईं डोगरा राज्य की सीमाएं 

जनरल जोरावर सिंह का सैन्य सफर केवल तिब्बत (Tibet Expedition 1841) तक सीमित नहीं था। वर्ष 1834 में उन्होंने लद्दाख (Ladakh History) पर जीत हासिल करके डोगरा राज्य की सीमाएं बढ़ाईं। यह इलाका उस समय सिख साम्राज्य का हिस्सा था, जिसका मुख्यालय लाहौर में था। कुछ साल बाद, 1839 में, उन्होंने डोगरा राजा गुलाब सिंह तथा लाहौर दरबार की सहमति से बाल्टिस्तान (Baltistan Campaign) में सैन्य अभियान शुरू किया।

फरवरी 1840 तक जोरावर सिंह की सेनाएं बाल्टिस्तान में घुस चुकी थीं, जहां अहमद शाह का शासन था। बेहद मुश्किल जंग के बाद डोगरा सेना ने जून तक स्कार्दू और उसके आसपास की घाटियों पर कब्जा कर लिया। यह जीत आसान नहीं थी। कठिन मौसम, ऊबड़-खाबड़ रास्ते और दुश्मन की सेना के सामने डोगरा सैनिकों ने हार नहीं मानी। जोरावर सिंह का नेतृत्व ऐसा था कि हर सैनिक में जीत का जुनून था।

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इसके बाद अप्रैल 1841 में, जनरल जोरावर सिंह ने तिब्बत की ओर कूच किया। सितंबर तक उनकी सेना नेपाल की उत्तर-पश्चिमी सीमा तक पहुंच गई थी। यह वह समय था जब अंग्रेज हुकूमत भी घबरा गई थी। उन्हें डर था कि जोरावर सिंह की सेना ल्हासा तक पहुंच सकती है। अक्टूबर 1841 में ब्रिटिश सरकार ने लाहौर दरबार को पत्र लिखकर जोरावर सिंह की सेना को तिब्बत से वापस बुलाने को कहा। आखिरकार, 10 दिसंबर 1841 को डोगरा सेना को तिब्बत से लौटना पड़ा। यह वह क्षण था, जिसने जोरावर सिंह के ल्हासा तक पहुंचने के सपने को रोक दिया। दिलचस्प बात यह है कि अंग्रेजों ने खुद 1904 में ल्हासा पर कब्जा किया था, लेकिन तीन साल बाद उन्हें भी पीछे हटना पड़ा।

इन ऐतिहासिक अभियानों ने केवल डोगरा राज्य की सीमाएं नहीं बढ़ाईं, बल्कि हिमालयी क्षेत्रों में भारतीय सैन्य रणनीति और प्रशासनिक व्यवस्था की नींव भी रखी। यही वजह है कि आज भारतीय सेना जनरल ज़ोरावर सिंह को ‘हाई-ऑल्टीट्यूड वॉरफेयर’ (High Altitude Warfare) का अग्रदूत मानती है, जिसका असर आज के जम्मू-कश्मीर और लद्दाख की सीमाओं में देखा जा सकता है।

इस खास मौके पर भारतीय सेना के प्रमुख जनरल उपेंद्र द्विवेदी मुख्य अतिथि के तौर पर मौजूद थे। उन्होंने कार्यक्रम में दो किताबों का विमोचन भी किया। पहली किताब, “द वॉरियर गोरखा,” मधुलिका थापा ने लिखी है, जो परम वीर चक्र विजेता लेफ्टिनेंट कर्नल धन सिंह थापा (1962 भारत-चीन युद्ध) की बेटी हैं। धन सिंह थापा को 1962 के भारत-चीन युद्ध में वीरता के लिए यह सम्मान मिला था। दूसरी पुस्तक “ए कश्मीर नाइट एंड द लास्ट 50 इयर्स ऑफ द प्रिंसली स्टेट ऑफ जम्मू एंड कश्मीर” को रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल घनश्याम सिंह कटोच ने लिखा है।

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संगोष्ठी में जम्मू-कश्मीर राइफल्स और लद्दाख स्काउट्स के रिटायर्ड और पूर्व सैनिकों के अलावा कई सैन्य विशेषज्ञ और शिक्षाविद भी शामिल हुए। उन्होंने ज़ोरावर सिंह की सैन्य रणनीतियों, खासतौर से ऊंचाई वाले इलाकों में युद्ध के कौशल पर विस्तृत से चर्चा की। और बताया कि कैसे उनकी रणनीतियां आज भी भारतीय सेना की माउंटेन वॉरफेयर (Indian Army Mountain Warfare) की बुनियाद हैं।

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कार्यक्रम में मौजूद लोगों ने जोरावर सिंह की कहानियों को सुनकर उनके साहस और दूरदर्शिता की तारीफ की। यह सिर्फ एक सैन्य कमांडर की कहानी नहीं थी, बल्कि एक ऐसी शख्सियत की गाथा थी, जिसने मुश्किल हालात में भी हार नहीं मानी। आज, जब भारत और चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा (Line of Actual Control – LAC) पर तनाव की बात होती है, जोरावर सिंह की रणनीतियां और हिमालय में उनकी जीत हमें याद दिलाती हैं कि साहस और सूझबूझ से हर चुनौती का सामना किया जा सकता है।

आज जब सीमा पर हालात लगातार बदल रहे हैं और वैश्विक स्तर पर भू-राजनीतिक समीकरण नए आकार ले रहे हैं, तो ऐसे में ज़ोरावर सिंह की विरासत को याद करना केवल इतिहास को सम्मान देना नहीं है, बल्कि भविष्य की तैयारी भी है। उनका जीवन इस बात का प्रतीक है कि एक व्यक्ति भी यदि निष्ठा, पराक्रम और उद्देश्य से भरपूर हो, तो वह पूरे इलाके की दिशा बदल सकता है। भारतीय सेना का यह आयोजन इसी सोच का विस्तार है – बीते कल से प्रेरणा लेते हुए, आने वाले कल को सुरक्षित और सशक्त बनाना।

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