करगिल युद्ध में करारी हार के बाद तत्कालीन पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष जनरल परवेज मुशर्रफ ने 12 अक्टूबर 1999 को तख्तापलट करके तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की सरकार को उखाड़ फेंका और खुद सत्ता हथिया ली थी। मुशर्रफ 1998 से सेना प्रमुख थे, उन्होंने करगिल में घुसपैठ की योजना बनाई, जिसके बारे में नवाज शरीफ को पूरी जानकारी नहीं थी। करगिल युद्ध में पाकिस्तान को भारी नुकसान हुआ, और नवाज शरीफ ने अंतरराष्ट्रीय दबाव में सैनिकों को वापस बुलाया, जिससे सेना में असंतोष बढ़ा...
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📍इस्लामाबाद | 20 May, 2025, 10:06 PM

Gen Munir Promotion!: पाकिस्तान एक बार फिर इतिहास के उस मोड़ पर खड़ा है, जहां सैन्य नेतृत्व और राजनीतिक स्थिरता दांव पर है। पाकिस्तान से आ रहीं रिपोर्ट्स के मुताबिक शहबाज शरीफ कैबिनेट ने सेना प्रमुख जनरल सैयद असीम मुनीर को फील्ड मार्शल का ओहदा देने का एलान किया है। विश्लेषकों का मानना है कि यह बिल्कुल वैसा ही जब 1965 में जनरल मोहम्मद अयूब खान खुद फील्ड मार्शल बन गए थे। यह तब हुआ था जब 1965 के भारत-पाक युद्ध में करारी हार के बाद छवि बचाने और सेना में असंतोष को दबाने के लिए ऐसा किया गया था। सूत्रों का दावा है कि ऑपरेशन सिंदूर (7-10 मई 2025) में भारत के हाथों करारी हार के बाद, अगर मुनीर को यह दर्जा न दिया जाता, तो सेना के भीतर बगावत की आशंका थी। आर्थिक संकट, बलूचिस्तान और TTP विद्रोह, और इमरान खान के समर्थकों का विरोध भी इस फैसला के पीछे बड़ी वजह है।

Gen Munir Promotion!: ऑपरेशन सिंदूर में पाकिस्तान की करारी हार

22 अप्रैल 2025 को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले में 26 लोग मारे गए, जिसके बाद भारत-पाक तनाव को चरम पर पहुंच गया। भारत ने इसका जवाब ऑपरेशन सिंदूर (7-10 मई 2025) के जरिए दिया। भारतीय सेना ने सटीक मिसाइल और हवाई हमलों के जरिए पाकिस्तान और पाक-अधिकृत कश्मीर (PoK) में आतंकी ठिकानों और सैन्य ढांचे को भारी नुकसान पहुंचाया। भारत ने 9 आतंकी ठिकानों पर बमबारी करके जैश-ए-मोहम्मद (बहावलपुर में मारकज सुभान अल्लाह, मुजफ्फराबाद में सैय्यदना बिलाल), लश्कर-ए-तैयबा (मुरिदके में मारकज तैबा), और हिजबुल मुजाहिदीन के ठिकानों को नष्ट कर दिया। इसमें 100+ आतंकवादी मारे गए।

इसके अलावा भारत ने ऑपरेशन के तहत पाकिस्तान के 12 हवाई अड्डों को तबाह कर दिया। नूर खान एयर बेस (रावलपिंडी), मुरिद, रफीकी (झांग), स्कर्दू, जैकोबाबाद, सरगोधा, और भोली के हवाई अड्डों को निशाना बनाया गया। इसमें रडार सिस्टम, विमान हैंगर, और अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर तबाह हो गए। पाकिस्तानी सेना प्रवक्ता लेफ्टिनेंट जनरल अहमद शरीफ ने चार से छह अड्डों को नुकसान की पुष्टि की। इसके अलावा भारतीय ब्रह्मोस सुपरसोनिक क्रूज मिसाइलों, स्कैल्प मिसाइलों, पाकिस्तान के चीनी मूल के HQ-9 और LY-80 एय़र डिफेंस सिस्टम को बेकार कर दिया। सियालकोट के पासरूर आर्मी कैंट, नूर खान बेस, और लाहौर के रडार सिस्टम नष्ट हुए। PoK और सीमावर्ती क्षेत्रों में कई पाकिस्तानी सैन्य चौकियां भी तबाह हुईं। सैटेलाइट तस्वीरों ने इन चौकियों को नुकसान की पुष्टि की।

इसके अलावा भारतीय हमले में पाकिस्तान के 5-7 फाइटर जेट और सैकड़ों ड्रोन भी निशाना बने। भारत ने गुजरात के कच्छ और जम्मू-कश्मीर में कई पाकिस्तानी ड्रोन मार गिराए। इन हमलों पाकिस्तान के 35-40 सैनिकों समेत 100+ आतंकवादी भी मारे गए। हालांकि पाकिस्तान ने पहले केवल 11 सैनिकों की मौत स्वीकारी थी। पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद भारत की जवाबी कार्रवाई से पाकिस्तान इतना घबराया कि 9-10 मई की रात जनरल मुनीर ने प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ को फोन कर हमलों की गंभीरता बताते हुए युद्धविराम करने की बात कही।

बंकर में छुप गए थे मुनीर

वहीं, भारतीय सेना की जवाबी कार्रवाई इतनी जबरदस्त थी कि पूरी पाकिस्तानी सेना घुटनों पर आ गई। इन हमलों ने न केवल पाकिस्तानी सेना की कमजोरी उजागर की, बल्कि जनरल मुनीर की रणनीति पर भी सवाल उठाए। खुद पाकिस्तान की अवाम ने भी अपनी सेना की कायरता को जमकर कोसा। सूत्रों के अनुसार, भारतीय हमलों के दौरान असीम मुनीर को रावलपिंडी के जनरल हेडक्वार्टर्स (GHQ) में एक बंकर में छिपना पड़ा। इमरान खान के समर्थकों ने उनकी इस “कायरता” पर जमकर हमला बोला। पूरे पाकिस्तान में #MunirOut जैसे सोशल मीडिया कैंपेन चलाए गए।

1965 में भी हुआ था ऐसा

सूत्रों का कहना है कि पाकिस्तान के मौजूदा हालात 1965 की तुलना में कहीं अधिक मुश्किल और नाजुक हैं। अब जनरल मुनीर अपने पूर्ववर्ती जनरलों के तरह तख्तापलट तो कर नहीं सकते थे, क्योंकि अमेरिका अब ऐसा होने नहीं देगा। तो मुनीर के सामने अपनी छवि बचाने के लिए एक ही रास्ता था कि वह जनरल अयूब की तरह फील्ड मार्शल बन जाएं औऱ सेना के भीतर उठ ही नाराजगी पर कुछ लगाम कसने की कोशिश करें।

मोहम्मद अयूब खान 1951 में वे पाकिस्तान के पहले सेनाध्यक्ष बने थे। 1958 में, उन्होंने तख्तापलट के जरिए सत्ता पर कब्जा किया और राष्ट्रपति बन गए। इस तख्तापलट की वजह उन्होंने तत्कालीन सरकार की अस्थिरता, भ्रष्टाचार और राजनीतिक अराजकता को बताया और देश में मार्शल लॉ लागू कर दिया। लेकिन वहां की अवाम में सेना को लेकर नाराजगी शुरू हो गई। जिसके बाद अपनी साथ बचाने के लिए जनरल अयूब ने कश्मीर का सहारा लिया और कश्मीर में ऑपरेशन जिब्राल्टर शुरू किया, जिसमें पाकिस्तानी सेना ने घुसपैठियों को कश्मीर भेजा और विद्रोह भड़काने की कोशिश की। लेकिन यह योजना असफल रही, क्योंकि कश्मीरी अवाम ने इसका समर्थन नहीं किया, और भारतीय सेना ने घुसपैठियों को पकड़ लिया और मार गिराया। इससे पाकिस्तान बुरी तरह भड़क गया और ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम शुरू किया, जिसमें उसने जम्मू-कश्मीर के अखनूर सेक्टर पर कब्जा करने की कोशिश की। यह भारत के लिए रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्र था, क्योंकि यह जम्मू को कश्मीर घाटी से जोड़ता था। भारत ने इस हमले का जवाब न केवल कश्मीर में, बल्कि अंतरराष्ट्रीय सीमा पर आक्रामक कार्रवाई के साथ दिया।

भारतीय सेना ने पार की अंतरराष्ट्रीय सीमा

पाकिस्तान ने युद्ध को कश्मीर तक सीमित रखने की योजना बनाई थी, यह उम्मीद करते हुए कि भारत अंतरराष्ट्रीय सीमा पर हमला नहीं करेगा। लेकिन भारत ने 6 सितंबर 1965 को पंजाब में अंतरराष्ट्रीय सीमा पार करके लाहौर और सियालकोट सेक्टरों में हमला बोला। जहां पाकिस्तान ने अपनी अधिकांश सैन्य ताकत कश्मीर में लगा रखी थी, तो भारतीय सेना ने कश्मीर पर दबाव कम करने के लिए लाहौर और सियालकोट पर हमला बोल दिया। भारतीय सेना का लाहौर के बाहरी इलाकों में इच्छावाक नहर (Lahore Canal) तक पहुंच गई। इस दौरान, भारतीय सेना ने कई महत्वपूर्ण गांवों और कस्बों जैसे बुरकी पर कब्जा जमा लिया। यह पाकिस्तान के लिए एक बड़ा झटका था। हालांकि, भारतीय सेना ने लाहौर शहर पर कब्जा करने की कोशिश नहीं की। वहीं, भारतीय सेना ने सियालकोट सेक्टर में चविंडा और अन्य क्षेत्रों में भारी टैंक युद्ध लड़े, जो सबसे बड़े टैंक युद्धों में से एक था। युद्ध सितंबर 1965 में ताशकंद समझौते के साथ समाप्त हुआ, जिसमें दोनों पक्ष अपनी-अपनी सीमाओं पर वापस लौट गए। ताशकंद समझौता के तहत भारत ने हाजी पीर दर्रा जैसे कुछ क्षेत्रों को पाकिस्तान को वापस कर दिया।

1965 में भी चलाया जीत का प्रोपेगंडा

जैसे 2025 में जिस तरह से पाकिस्तान की हार हुई है, तब भी अयूब को करारी हार का सामना करना पड़ा था। पाकिस्तानी सेना का प्रचार तंत्र तेज हो गया औऱ 1965 के युद्ध को अपनी जीत बताना शुरू कर दिया। लेकिन पाकिस्तानी प्रचार ने दावा किया कि उसने लाहौर को “बचा लिया,” लेकिन वास्तव में भारतीय सेना ने रणनीतिक रूप से इन क्षेत्रों में दबाव बनाए रखा, जिससे पाकिस्तान को अपनी सेना को कश्मीर से हटाकर पंजाब में तैनात करना पड़ा। भारतीय सेना का लाहौर और सियालकोट तक पहुंचना अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए एक संदेश था कि भारत न केवल रक्षात्मक, बल्कि आक्रामक कार्रवाई करने में भी सक्षम है। वहीं, चविंडा की लड़ाई को पाकिस्तान में एक बड़ी जीत के रूप में प्रचारित किया गया। लेकिन वास्तविक परिणाम इसके उलट थे। खुद पाकिस्तानी सेना में ही जनरल अयूब की रणनीति पर सवाल उठने लगे, सेना में असंतोष बढ़ने लगा। इसी असंतोष को दबाने के लिए और बड़ी जीत का दिखावा करने के लिए जनरल अयूब ने खुद को फील्ड मार्शल घोषित कर दिया। इस तरह से पाकिस्तान को पहला स्वयंभू फील्ड मार्शल मिला।

1965 के बाद धीरे-धीरे कम होने लगी अयूब की लोकप्रियता

अयूब खान ने फील्ड मार्शल का दर्जा हासिल करके खुद को राष्ट्रीय नायक के रूप में स्थापित किया गया और युद्ध को “सफलता” के रूप में प्रचारित किया गया। यह सेना को एकजुट करने और उनके नेतृत्व में विश्वास बनाए रखने की कोशिश थी। यह अमेरिका जैसे सहयोगियों को यह दिखाने की भी कोशिश थी कि वह एक मजबूत क्षेत्रीय नेता हैं। 1965 के युद्ध ने पूर्वी पाकिस्तान में असंतोष को बढ़ाया, क्योंकि बंगाली आबादी को लगता था कि उनकी सुरक्षा को नजरअंदाज किया गया। यह 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम की एक बड़ी वजह बना। अयूब की लोकप्रियता 1965 के बाद धीरे-धीरे कम होने लगी। हालांकि फील्ड मार्शल का दर्जा अयूब की छवि को कुछ समय के लिए मजबूत करने में सफल रहा, लेकिन उन पर आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार के आरोप, और राजनीतिक दमन के आरोप लगने लगे। 1968-69 में विरोध प्रदर्शनों ने उन्हें सत्ता छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। 1969 में, अयूब को सत्ता छोड़नी पड़ी, और जनरल याह्या खान ने मार्शल लॉ लागू कर दिया।

करगिल में हार के बाद मुशर्रफ ने किया था तख्तापलट

करगिल युद्ध में करारी हार के बाद तत्कालीन पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष जनरल परवेज मुशर्रफ ने 12 अक्टूबर 1999 को तख्तापलट करके तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की सरकार को उखाड़ फेंका और खुद सत्ता हथिया ली थी। मुशर्रफ 1998 से सेना प्रमुख थे, उन्होंने करगिल में घुसपैठ की योजना बनाई, जिसके बारे में नवाज शरीफ को पूरी जानकारी नहीं थी। करगिल युद्ध में पाकिस्तान को भारी नुकसान हुआ, और नवाज शरीफ ने अंतरराष्ट्रीय दबाव में सैनिकों को वापस बुलाया, जिससे सेना में असंतोष बढ़ा। 1999 में करगिल हार के बाद शरीफ ने मुशर्रफ को हटाने की कोशिश की, लेकिन सेना ने तख्तापलट कर शरीफ को अपदस्थ कर दिया। मुशर्रफ ने चीफ एग्जीक्यूटिव का पद संभाला और 2001 में राष्ट्रपति बने।

2025 में पाकिस्तान में आतंरिक चुनौतियां

मुनीर का फील्ड मार्शल बनने के पीछे भी यही वजह है। ऑपरेशन सिंदूर की हार ने उनकी स्थिति को कमजोर किया है, और सेना के भीतर बगावत की आशंका ने इस कदम को जरूरी बना दिया। ऑपरेशन सिंदूर में जिस तरह से नूर खान बेस, रडार सिस्टम, और सैन्य चौकियों की तबाही हुई उससे मुनीर की रणनीतिक कमजोरी साफ दिखी। उनके कार्यकाल में बलूचिस्तान में विद्रोही हमले और खैबर पख्तूनख्वा में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) की गतिविधियां बढ़ रही हैं। इससे सेना के मनोबल पर असर पड़ रहा है। अगर मुनीर को यह दर्जा न दिया जाता, तो तख्तापलट या बगावत की आशंका थी। इमरान खान समर्थकों ने मुनीर को “कायर” और “अक्षम” करार दिया है। #MunirOut अभियान ने उनकी स्थिति को और कमजोर किया है।

सूत्रों के अनुसार, पाकिस्तानी सेना के कुछ वरिष्ठ अफसर मुनीर की भारत और अफगानिस्तान नीतियों को “आत्मघाती” मानते हैं। वह कहते हैं कि ऐसा करके मनीर को खुद को ‘सेफ’ कर लिया। मुनीर का कार्यकाल नवंबर 2025 में समाप्त हो रहा है। हालांकि उन्हें कार्यकाल खत्म होने के बाद जनरल का पद छोड़ना पड़ेगा, लेकिन वह आजीवन फील्ड मार्शल बने रहेंगे। इससे सेना में उन्हें जीवनभर ‘सम्मान’ मिलता रहेगा और सेना पर पकड़ बनी रहेगी। साथ ही, इससे चीन और रूस जैसे सहयोगियों को यह संदेश देने की कोशिश है कि पाकिस्तानी सेना एकजुट और ताकतवर है।

भारत की जीत को छोटा करने की कोशिश

ऑपरेशन सिंदूर में जिस तरह से भारतीय सेना ने शानदार प्रदर्शन करके पाकिस्तान की सैन्य ताकत को औकात दिखाई है, वह पाकिस्तान के गले नहीं उतर रही है। भारत ने पहलगाम हमले के बाद आतंकवाद के खिलाफ अपनी सख्त नीति को वैश्विक मंच पर मजबूती से रखा। ऑपरेशन सिंदूर से भारतीय सेना ने अपनी सटीक और आक्रामक जवाबी कार्रवाई की क्षमता का प्रदर्शन पूरी दुनिया के सामने किया है, इससे उसकी साख बढ़ी है। पाकिस्तान का यह कदम भारत के नैरेटिव, विशेष रूप से कश्मीर में आतंकवाद और पाकिस्तान की भूमिका को लेकर, को कमजोर करने की कोशिश हो सकता है।

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भारत में फील्ड मार्शल- सैन्य गौरव का प्रतीक

वहीं, पाकिस्तान के उलट भारत में फील्ड मार्शल का पद बेहद सम्मानजनक माना जाता है। यह पद केवल असाधारण योगदान के लिए दिया जाता है। अब तक केवल तीन सैन्य नायकों को यह दर्जा मिला है: सैम मानेकशॉ, कोडंडेरा एम. करियप्पा, और अर्जन सिंह। सैम मानेकशॉ को जनवरी 1973 में फील्ड मार्शल बनाया गया, उसी महीने वे सेना प्रमुख के पद से रिटायर हुए थे। 1971 के भारत-पाक युद्ध में उनकी रणनीति ने बांग्लादेश की स्थापना और पाकिस्तान की हार सुनिश्चित की। कोडंडेरा एम. करियप्पा, भारत के पहले सेना प्रमुख, उन्हें 1986 में यह दर्जा मिला, यानी उनके 1953 के रिटायरमेंट के 33 साल बाद। 1947-48 के भारत-पाक युद्ध में उनकी नेतृत्व क्षमता ने कश्मीर की सुरक्षा की। वहीं अर्जन सिंह, भारतीय वायुसेना के दिग्गज, को 2002 में मार्शल ऑफ द एय़रफोर्स बनाया गया। 1969 में रिटायर होने के बाद, 1965 के युद्ध में उनके नेतृत्व को सम्मानित किया गया।

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