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हाजी पीर दर्रा, जिसे भारतीय सेना ने 1948 और 1965 में अदम्य साहस से जीता था, आज भी आतंकवादी घुसपैठ का मुख्य रास्ता बना हुआ है। 1965 के युद्ध में भारतीय सेना ने भारी बलिदान देकर इसे अपने कब्जे में लिया था, लेकिन ताशकंद समझौते के तहत इसे पाकिस्तान को लौटा दिया गया। इस रणनीतिक गलती का नतीजा आज भी भारत भुगत रहा है, क्योंकि यही दर्रा पाकिस्तान से आतंकवादियों की घुसपैठ का सबसे बड़ा मार्ग बना हुआ है...
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📍New Delhi | 3 months ago

Haji Pir Pass: 22 अप्रैल 2025 को हुए पहलगाम आतंकी हमले से पूरा देश सदमे में है। बैसरन घाटी में हुए इस हमले में 26 लोग मारे गए थे। पाकिस्तान के आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा की शाखा द रेसिस्टेंस फ्रंट (TRF) ने इस हमले को अंजाम दिया। इस हमले की साजिश पाक अधिकृत कश्मीर (PoK) के रावलाकोट में रची गई। संभावना जताई जा रही है कि आतंकियों ने हाजी पीर दर्रे के रास्ते घुसपैठ कर पहलगाम तक पहुंचे। यह दर्रा, जिसे भारत ने 1965 में जीता था लेकिन ताशकंद समझौते में पाकिस्तान को लौटा दिया, आज भी आतंकी घुसपैठ का मुख्य रास्ता बना हुआ है। पहलगाम आतंकी हमले ने 51 साल पुरानी उस रणनीतिक भूल पर फिर से बहस छेड़ दी है, जिसके परिणाम भारत आज भी भुगत रहा है।

Haji Pir Pass: Won Twice by India, Returned, Still a Key Route for Terror Infiltration

Haji Pir Pass: हाजी पीर और पहलगाम हमले का कनेक्शन

संभावना जताई जा रही है कि पहलगाम आतंकी हमले में भी हाजी पीर दर्रे का इस्तेमाल हुआ था। आतंकी इसी दर्रे के रास्ते किश्तवाड़ से कोकेरनाग होते हुए बैसरन पहुंचे। पाक अधिकृत कश्मीर के रावलाकोट के निवासी और मानवाधिकार कार्यकर्ता औऱ कश्मीर पीपल्स नेशनल पार्टी के नेता सरदार नासिर अजीज खान ने खुलासा किया कि हाजी पीर के आसपास कई आतंकी प्रशिक्षण शिविर चल रहे हैं। यदि हाजी पीर आज भारत के नियंत्रण में होता, तो आतंकी घुसपैठ को रोका जा सकता था। 1965 के पश्चिमी सेना कमांडर रहे लेफ्टिनेंट जनरल हरबख्श सिंह ने इसे “रणनीतिक मास्टरस्ट्रोक” बताया था, लेकिन ताशकंद ने इसे बेकार कर दिया। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने जनवरी 2025 में कहा, “1948 और 1965 में हाजी पीर लौटाना भूल थी। यह आतंकवाद का रास्ता बंद कर सकता था।”

 2,637 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है Haji Pir Pass:

यह दर्रा पाक अधिकृत कश्मीर (PoK) में स्थित है। हाजी पीर दर्रा पीर पंजाल रेंज पर 2,637 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और पुंछ-उरी-राजौरी मार्ग पर एक महत्वपूर्ण सड़क को जोड़ता है। यह जम्मू-कश्मीर के लिए सामरिक रूप से महत्वपूर्ण है। क्योंकि यदि भारत इस दर्रे को अपने नियंत्रण में रखता तो यह घुसपैठ के रास्ते बंद कर सकता है और पुंछ-उरी के बीच की दूरी को 282 किमी से 56 किमी तक कम कर सकता है। 1948 और 1965 के भारत-पाक युद्ध में इस दर्रे को जीतना भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि थी।

Haji Pir Pass: 1948: पहला कब्जा और वापसी

1947-48 के प्रथम भारत-पाक युद्ध में पाकिस्तान ने हाजी पीर दर्रा सहित 78,114 वर्ग किमी जम्मू-कश्मीर क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। 22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान ने कबाइली हमलावरों (पठान जनजातियों) और पाकिस्तानी सेना के समर्थन से कश्मीर पर हमला शुरू किया। इस ऑपरेशन गुलमर्ग का मकसद कश्मीर को बलपूर्वक हथियाना था। 26 अक्टूबर को महाराजा हरी सिंह ने भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए, और भारत ने सैन्य सहायता भेजी। हाजी पीर दर्रा, जो पुंछ-उरी-श्रीनगर मार्ग को जोड़ता है, इस युद्ध में एक महत्वपूर्ण लक्ष्य था। पाकिस्तानी घुसपैठिए और सेना ने इस क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था, क्योंकि यह कश्मीर घाटी में प्रवेश का एक प्रमुख रास्ता था। कबाइलियों और पाक सेना ने अक्टूबर 1947 में मुजफ्फराबाद, बारामूला, और उरी पर कब्जा कर लिया। हाजी पीर दर्रा भी उनके नियंत्रण में आ गया, क्योंकि यह रावलाकोट से कश्मीर घाटी तक का सबसे छोटा रास्ता था। दर्रे का नियंत्रण पाकिस्तान के लिए महत्वपूर्ण था, क्योंकि यह घुसपैठियों और हथियारों की आपूर्ति के लिए लॉजिस्टिक केंद्र था।

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भारतीय सेना ने इसके जवाब में नवंबर 1947 से श्रीनगर और उरी को सुरक्षित करने के लिए सैन्य अभियान शुरू किया। 1 सिख रेजिमेंट और 4 कुमाऊं रेजिमेंट ने बारामूला और उरी को कबाइलियों के कब्जे से मुक्त कराया। जबकि पुंछ 1947 के अंत तक पाकिस्तानी घेराबंदी में था। इसके बाद भारतीय सेना ने ऑपरेशन ईजी (1948) शुरू किया, जिसका मकसद पुंछ को मुक्त कराना और हाजी पीर क्षेत्र पर नियंत्रण हासिल करना था। मई-जून 1948 में भारतीय सेना ने पुंछ के आसपास कई चोटियों पर कब्जा किया और हाजी पीर दर्रे तक पहुंची। 19 इन्फैंट्री ब्रिगेड और 161 इन्फैंट्री ब्रिगेड ने इस अभियान में हिस्सा लिया। जून 1948 तक भारतीय सेना ने हाजी पीर दर्रे पर कब्जा कर लिया। इलाका बेहद ऊबड़-खाबड़ था, और पाकिस्तानी सेना ने दर्रे पर भारी हथियार तैनात कर रखे थे। भारतीय सैनिकों ने सांक, लेदीवाली गली, और बेदोरी जैसी चोटियों को जीतकर दर्रे तक पहुंच बनाई। इस जीत ने पुंछ-उरी मार्ग को आंशिक रूप से बहाल किया और घुसपैठ को कम किया।

पाकिस्तानी सेना ने जुलाई-अगस्त 1948 में दर्रे को वापस लेने के लिए कई जवाबी हमले किए। इन हमलों में कबाइली लड़ाकों और पाकिस्तान के रेगुलर सैनिकों ने हिस्सा लिया। भारतीय सेना ने इन हमलों को विफल किया, लेकिन भारी नुकसान भी उठाया। पुंछ घेराबंदी नवंबर 1948 तक जारी रही, जब भारतीय सेना ने ऑपरेशन लिंक-अप के तहत पुंछ को पूरी तरह मुक्त कराया। ब्रिगेडियर प्रीतम सिंह और लेफ्टिनेंट कर्नल हरि सिंह जैसे अधिकारियों ने पुंछ और हाजी पीर अभियानों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

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Haji Pir Pass: संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता में युद्धविराम

1 जनवरी 1949 को संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता में युद्धविराम लागू हुआ। नियंत्रण रेखा (LoC) स्थापित की गई, और हाजी पीर दर्रा पाकिस्तान के नियंत्रण में चला गया। भारत ने युद्ध में दर्रे पर कब्जा किया था, लेकिन युद्धविराम समझौते के तहत इसे वापस करना पड़ा। यह फैसला भारत के लिए रणनीतिक नुकसान साबित हुआ, क्योंकि हाजी पीर बाद में आतंकी घुसपैठ का केंद्र बन गया।

Haji Pir Pass: 1965 में दूसरा कब्जा

पाकिस्तान ने ऑपरेशन जिब्राल्टर शुरू किया, जिसमें हजारों घुसपैठिए (5,000-30,000) कश्मीर में दाखिल हुए ताकि विद्रोह भड़काया जाए। हाजी पीर दर्रा इस घुसपैठ का मुख्य केंद्र था। भारत ने जवाबी कार्रवाई में ऑपरेशन बख्शी और ऑपरेशन फौलाद शुरू किए। 1 पैरा बटालियन, मेजर (बाद में लेफ्टिनेंट जनरल) रणजीत सिंह दयाल और ब्रिगेडियर जोरावर चंद बख्शी के नेतृत्व में, ने 37 घंटे की भीषण लड़ाई के बाद सांक, लेदीवाली गली, और हाजी पीर दर्रा पर कब्जा किया। 28 अगस्त 1965 का दिन भारतीय सेना के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। बारिश, कीचड़, कोहरा, और दुश्मन की गोलाबारी के बावजूद 28 अगस्त को सुबह 10:30 बजे दर्रा भारत के नियंत्रण में था। उस दिन सुबह 10:30 बजे, मेजर रंजीत सिंह दयाल (बाद में लेफ्टिनेंट जनरल) के नेतृत्व में 1 पैरा के जांबाज सैनिकों ने जम्मू-कश्मीर में हाजी पीर दर्रे पर कब्जा कर लिया। यह हमला पांच इन्फैंट्री बटालियनों और दो आर्टिलरी रेजिमेंट्स की मदद से किया गया था।

यह दर्रा, जो 1947 के बंटवारे के बाद 18 साल तक पाकिस्तान के कब्जे में था, भारतीय सेना के लिए एक बड़ी जीत थी। अगले दिन पाकिस्तान ने जवाबी हमला किया, लेकिन भारतीय सैनिकों ने उसे नाकाम कर दिया। 30 अगस्त तक दर्रे और आसपास की चोटियों पर भारत का पूर्ण नियंत्रण था। 10 सितंबर को नजदीकी काहुता पर कब्जे के साथ हाजी पीर बल्ज को पूरी तरह सील कर दिया गया, और पाकिस्तानी ने पूरी तरह से घुटने टेक दिए थे। यह मिशन ऑपरेशन बख्शी का हिस्सा था, जिसने पाकिस्तान के ऑपरेशन जिब्राल्टर को विफल किया। हमले से पांच दिन पहले सेना प्रमुख जनरल जे.एन. चौधरी ने आक्रामक रुख अपनाने की जरूरत पर जोर दिया था, ताकि पाकिस्तान को जवाब देने के लिए मजबूर किया जाए।

Haji Pir Pass: पाकिस्तान का ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम

हाजी पीर पर कब्जे ने पाकिस्तान को झटका दिया, लेकिन तीन दिन बाद उसने ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम शुरू किया। 1 सितंबर को चंब-जौरियन सेक्टर में उसने टैंकों और पैदल सेना के साथ बड़ा हमला बोला, जिसका मकसद अखनूर का पुल और फिर जम्मू-पुंछ राजमार्ग पर कब्जा करना था। इससे वह जम्मू-श्रीनगर राजमार्ग पर नियंत्रण कर जम्मू-कश्मीर को भारत से काट सकता था। खुफिया जानकारी और तैयारी की कमी के कारण भारतीय सेना शुरू में दबाव में थी, लेकिन 6 सितंबर को भारतीय सेना के XI और I कोर ने पाकिस्तानी पंजाब में लाहौर और सियालकोट की ओर बढ़कर जवाब दिया। इससे पाकिस्तान को अपनी सेना वापस खींचनी पड़ी, और अखनूर का पुल आखिरी मौके पर बच गया।

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Haji Pir Pass: ताशकंद समझौते में सोवियत दबाव

खास बात यह है कि 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में, जो 5 अगस्त को पाकिस्तानी घुसपैठियों की पहचान के साथ शुरू हुआ और 23 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र के युद्धविराम के साथ खत्म हुआ, यह भारतीय सेना की एकमात्र ऐसी आक्रामक कार्रवाई थी जो शुरू से अंत तक पूरी तरह सफल रही। मेजर रणजीत दयाल और ब्रिगेडियर बख्शी को महावीर चक्र मिला, और 1 पैरा को बैटल ऑनर हाजीपीर से सम्मानित किया गया। लेकिन ताशकंद समझौते (10 जनवरी 1966) में भारत ने हाजी पीर दर्रा और 1,920 वर्ग किमी क्षेत्र पाकिस्तान को लौटा दिया। यह फैसला सोवियत दबाव में लिया गया। पाकिस्तान ने चंब-जौरियन क्षेत्र में अखनूर के पास फटवाल रिज तक कब्जा कर लिया था, जो जम्मू के लिए खतरा था। भारत ने हाजी पीर के बदले चंब से पाकिस्तानी सेना को हटाने की शर्त मानी। यह फैसला कई सैन्य अधिकारियों को गलत लगा, क्योंकि इससे पाकिस्तानी सेना अखनूर से सिर्फ 4 किलोमीटर दूर रह सकती थी। कई विशेषज्ञों का मानना है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने पाकिस्तान के “युद्ध न करने” के वादे पर भरोसा किया। शास्त्री की ताशकंद में अचानक मृत्यु ने इस फैसले पर सवाल खड़े कर दिए।

1971 में क्यों नहीं किया कब्जा?

1971 के युद्ध में भारत ने 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों को बंदी बनाया और पूर्वी पाकिस्तान में मुक्ती बाहिनी की मदद की। जिसके बाद बांग्लादेश आजाद देश बना। हालांकि, उस दौरान भारत ने हाजी पीर दर्रे को फिर से कब्जाने की कोशिश की, लेकिन भारी नुकसान के चलते हमला वापस लेना पड़ा। मेजर रमेश बलदानी सहित कई सैनिक शहीद हुए। विश्लेषकों का कहना है कि भारत को फोकस पूर्वी मोर्चे पर था, और पश्चिमी मोर्चे पर हाजी पीर को प्राथमिकता नहीं दी। 1971 में भारत इस दर्रे को दोबारा हासिल करने का मौका चूक गया। बाद में मेजर से लेफ्टिनेंट जनरल बने रणजीत सिंह दयाल ने बाद में एक सााक्षात्कार में कहा था, “यह दर्रा भारत को रणनीतिक बढ़त दे सकता था। इसे लौटाना गलती थी। हमारे लोग नक्शे नहीं पढ़ते।”

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वहीं, लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) डी.बी. शेकटकर ने 23 सितंबर 2015 को एक बयान में कहा था, “हाजी पीर की वापसी ने आतंकवाद को बढ़ावा दिया”। उन्होंने विशेष रूप से कहा, “हमें यह नहीं पता कि हाजी पीर दर्रा, जो रणनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण था, उसे वापस करने के क्या कारण थे। आज कश्मीर में होने वाली सारी घुसपैठ उसी क्षेत्र से होती है। अगर हमने उस चौकी को, जिसे हमने कब्जा किया था, अपने पास रखा होता, तो चीजें अलग हो सकती थीं।”

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