📍लोंगेवाला | 2 months ago
Army Chief Longewala Visit: भारतीय सेना प्रमुख जनरल उपेंद्र द्विवेदी ने सोमवार को 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान अपनी ऐतिहासिक जीत के लिए प्रसिद्ध राजस्थान के लोंगेवाला में इंटरनेशनल बॉर्डर के नजदीक स्थित सैन्य चौकी का दौरा किया। इस दौरान उन्होंने ऑपरेशन सिंदूर में अहम योगदान देने वाले सैनिकों की जमकर तारीफ की। जनरल द्विवेदी ने भारतीय वायुसेना (IAF) और सीमा सुरक्षा बल (BSF) के साथ मिलकर किए गए संयुक्त अभियान की समीक्षा भी की, जिसमें रेगिस्तानी इलाके में रणनीतिक तैयारियों और कॉर्डिनेशन पर विशेष ध्यान दिया गया। आर्मी चीफ के इस दौरे के दौरान उनके पीछे नजर आया एक खास वेपन सिस्टम जिसने सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा। आर्मी चीफ ने उसी के आगे खड़े होकर वहां मौजूद जवानों को संबोधित किया। जनरल उपेंद्र द्विवेदी ने लोंगेवाला के दौरे के दौरान इस जंग की वीरता को याद किया। उन्होंने कहा, “लोंगेवाला की जंग हमें सिखाती है कि हिम्मत और रणनीति के सामने कोई ताकत नहीं टिक सकती। आज भी हमारे सैनिक उसी जज्बे के साथ देश की रक्षा कर रहे हैं।”
Army Chief Longewala Visit: लोंगेवाला का क्या है ऐतिहासिक महत्व
लोंगेवाला भारत-पाकिस्तान सीमा के पास एक छोटा सा गांव है, जो रणनीतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण है। 1971 के युद्ध में, मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी के नेतृत्व में 120 भारतीय सैनिकों ने सीमित संसाधनों के बावजूद यहां 3000 से अधिक पाकिस्तानी सैनिकों और टैंकों को रोककर इतिहास रच दिया था। आज भी यह क्षेत्र रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह भारत-पाकिस्तान सीमा के करीब स्थित है और रेगिस्तानी युद्ध की तैयारियों के लिए एक प्रमुख केंद्र है। इस जीत ने भारतीय सेना की वीरता और रणनीतिक कुशलता को पूरी दुनिया के सामने प्रदर्शित किया। आज भी यह क्षेत्र भारतीय सेना के लिए एक प्रतीकात्मक और रणनीतिक स्थल है, जहां नियमित रूप से सैन्य अभ्यास और तैयारियां की जाती हैं।
यह कहानी 4 दिसंबर 1971 की रात की है, जब राजस्थान के थार रेगिस्तान की सर्द रेत में 120 भारतीय सैनिक एक बड़े खतरे का सामना करने को तैयार थे। 1971 का युद्ध मुख्य रूप से पूर्वी मोर्चे पर केंद्रित था, जहां भारत बांग्लादेश की आजादी के लिए लड़ रहा था। उस समय पश्चिमी मोर्चे पर शांति थी, लेकिन पाकिस्तान के राष्ट्रपति याह्या खान की योजना कुछ और थी। उन्हें पता था कि पूर्वी पाकिस्तान ज्यादा दिन नहीं टिकेगा, इसलिए उन्होंने पश्चिमी सीमा पर हमला करने का फैसला किया।
उनका निशाना थी भारत-पाक सीमा के पास लोंगेवाला की छोटी सी चौकी। इस चौकी पर सिर्फ 120 सैनिक तैनात थे, जो 23वीं बटालियन, पंजाब रेजिमेंट का हिस्सा थे। इनके कमांडर थे मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी। उनके पास कोई टैंक नहीं था। दूसरी ओर, पाकिस्तान की तरफ से 2000 से ज्यादा सैनिक, 40 टैंक और भारी तोपखाने उनकी तरफ बढ़ रहा था। मेजर चांदपुरी के सामने दो रास्ते थे, या तो रामगढ़ की ओर पीछे हट जाएं, या फिर डटकर मुकाबला करें। उन्होंने हार नहीं मानी और लड़ने का फैसला किया। जवानों ने तुरंत रणनीति बनाई। उन्होंने नकली एंटी-टैंक माइंस बिछाकर दुश्मन को भ्रम में डाला, अपनी पोजीशन ली और हमले का इंतजार किया। आधी रात को पाकिस्तानी टैंक चौकी के करीब पहुंच गए और लोंगेवाला की जंग शुरू हो गई।
नकली माइंस बिछा कर पाकिस्तान को दिया चकमा
रात के 12:30 बजे पहला गोला दागा गया। धमाकों से रेगिस्तान में उजाला हो गया, लेकिन भारतीय सैनिकों ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने तब तक गोली नहीं चलाई, जब तक दुश्मन के टैंक 15 से 30 मीटर की दूरी पर नहीं आ गए। फिर रिकॉइललेस राइफल्स से हमला बोला गया और दो टैंक तुरंत नष्ट कर दिए गए। पाकिस्तानी सेना की मुश्किलें यहीं शुरू हो गईं। उनके कई टैंक रेगिस्तान की नरम रेत में फंस गए। कुछ टैंकों ने कांटेदार तार देखे और सोचा कि वहां माइंस बिछी हैं। उन्होंने इंजीनियरों को बुलाने के लिए दो घंटे तक इंतजार किया, लेकिन बाद में पता चला कि यह भारतीय सैनिकों की चाल थी। ये दो घंटे जंग के लिए निर्णायक साबित हुए।
मेजर चांदपुरी और उनके जवानों ने ऊंचे टीलों से दुश्मन पर नजर रखी। उस रात चांदनी थी, जिसके कारण विस्फोट की रोशनी में रेगिस्तान साफ दिख रहा था। भारतीय सैनिकों ने इसका फायदा उठाया और दुश्मन पर हमला जारी रखा। दूसरी तरफ, पाकिस्तानी सेना की हालत खराब थी। उनके पास सही नक्शे नहीं थे, रेगिस्तानी इलाके का अनुभव नहीं था, टैंकों का ईंधन खत्म हो रहा था और रात उनके लिए मुसीबत बन गई। भारतीय सैनिकों का गोला-बारूद और समय दोनों खत्म हो रहा था। लेकिन जैसे ही सुबह हुई और आसमान गड़गड़ाहट से गूंज उठा। भारतीय वायुसेना के हॉकर हंटर और एचएएल मारुत विमान मौके पर पहुंच गए। पाकिस्तान के पास कोई एयर डिफेंस नहीं था। भारतीय वायुसेना ने रॉकेट, मशीन गन और सटीक हमलों से दुश्मन पर कहर बरपाया। पायलटों ने इसे बाद में “टर्की शूट” कहा, क्योंकि दुश्मन के टैंक आसानी से निशाना बन गए थे। एक छोटे विमान में बैठे फॉरवर्ड एयर कंट्रोलर ने जेट्स को सटीक दिशा-निर्देश दिए। खतरों के बीच उतरते-चढ़ते उन्होंने टारगेट मार्क किए। देखते ही देखते रेगिस्तान पाकिस्तानी टैंकों का कब्रिस्तान बन गया। उस युद्ध में पाकिस्तान के 36 टैंक तबाह हो चुके थे, 100 से ज्यादा बख्तरबंद वाहन नष्ट हो गए थे।
स्ट्रेला-10M ने खींचा सभी का ध्यान
आर्मी चीफ का लोंगोवाला दौरा ऐसे समय में हुआ है, जब भारत अपनी सीमाओं पर बढ़ते खतरों का सामना कर रहा है। लेकिन इस बार पाकिस्तान के टैंक नहीं, बल्कि उसके ड्रोन हैं, जिन्हें भारत के एय़र डिफेंस सिस्टम ने मार गिराया। सेना प्रमुख के दौरे के दौरान उनके पीछे खड़े कॉम्बैट व्हीकल स्ट्रेला-10M ने सभी का ध्यान खींचा। कॉम्बैट व्हीकल 9K35 स्ट्रेला-10M (Strela-10M) है, जो एक शॉर्ट-रेंज सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल सिस्टम (SAM) है। इसे NATO में SA-13 Gopher के नाम से जाना जाता है। भारतीय सेना इस सिस्टम का उपयोग हवाई हमलों, खासकर निचली ऊंचाई पर उड़ने वाले विमानों, हेलीकॉप्टरों और ड्रोनों से अपनी टुकड़ियों की सुरक्षा के लिए करती है।
🚨 #BREAKING | COAS Visits Laungewala, Salutes Sindoor Warriors 🇮🇳
Army Chief Gen Upendra Dwivedi today visited forward areas of #KonarkCorps in Laungewala to commend troops for their stellar role in #OperationSindoor.
🔹 Praised Army, IAF & BSF’s joint ops from Jaisalmer to… pic.twitter.com/q8cgzXLGtq— Raksha Samachar | रक्षा समाचार 🇮🇳 (@RakshaSamachar) May 19, 2025
स्ट्रेला-10M को सोवियत संघ ने 1970 के दशक में बनाया था। भारतीय सेना ने इसे 1980 के दशक में अपने बेड़े में शामिल किया था और तब से यह सेना के एय़र डिफेंस का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना हुई है। यह सिस्टम निचली ऊंचाई पर उड़ने वाले हेलीकॉप्टरों, विमानों और ड्रोनों को आसानी से निशाना बना सकता है।
स्ट्रेला-10M एक ट्रैक वाले वाहन (MT-LB) पर लगी होती है, जो इसे रेगिस्तानी और पहाड़ी इलाकों में आसानी से ले जाने में मदद करता है। इस वाहन पर चार मिसाइल लांचर लगे होते हैं, जो 9M37 मिसाइलों से लैस होते हैं। ये मिसाइलें 5 किलोमीटर की दूरी और 3.5 किलोमीटर की ऊंचाई तक दुश्मन के हवाई लक्ष्यों को मार गिरा सकती हैं। इसकी खासियत यह है कि यह इन्फ्रारेड सेंसर और ऑप्टिकल गाइडेंस सिस्टम से लैस है, जिसके कारण यह रात में या खराब मौसम में भी काम कर सकती है।
भारतीय सेना ने स्ट्रेला-10M को किया अपग्रेड
भारतीय सेना में स्ट्रेला-10M का इस्तेमाल मुख्य रूप से मैदानी टुकड़ियों की सुरक्षा के लिए किया जाता है। यह सिस्टम ब्रिगेड स्तर पर तैनात कि जाता है, जहां यह दुश्मन के हवाई हमलों से सैनिकों और टैंकों को बचाने का काम करती है। भारत जैसे देश में, जहां अलग-अलग तरह के इलाके जैसे रेगिस्तान, पहाड़ और मैदान हैं, ऐसे हालात में स्ट्रेला-10M बेहद उपयोगी है। इसका ट्रैक वाला वाहन रेगिस्तान की रेत में भी आसानी से चल सकता है।
हाल के वर्षों में ड्रोन हमलों का खतरा बढ़ा है, जिसके चलते भारतीय सेना ने स्ट्रेला-10M को अपग्रेड करने का फैसला किया। 2024 में इस सिस्टम को आधुनिक बनाने का काम शुरू हुआ, जिसमें नए सेंसर और ड्रोन-रोधी तकनीकों को जोड़ा गया। आर्मी चीफ के दौरे के दौरान इस अपग्रेडेड सिस्टम को प्रदर्शित किया गया, जो यह दिखाता है कि सेना अपनी पुरानी तकनीकों को भी आधुनिक युद्ध के लिए तैयार कर रही है।
ZSU-23-2 एंटी-एयरक्राफ्ट गन भी दिखी
लोंगेवाला में आर्मी चीफ के आगे दो ZSU-23-2 एंटी-एयरक्राफ्ट गन भी देखी गईं। ये गन तेजी से फायरिंग करके हवाई लक्ष्यों को नष्ट करने में सक्षम है। जेनिटनाया उस्टानोव्का ZU-23 (Zenitnaya Ustanovka ZU-23) एंटी-एयरक्राफ्ट गन ने 7 से 10 मई के बीच चले ऑपरेशन सिंदूर में तुर्की और चीनी ड्रोनों को आसमान से मार गिराने में अहम भूमिका निभाई। ZSU-23 और स्ट्रेला-10M मिलकर किसी भी छोटे-मोटे हवाई खतरे का सामना करने में सक्षम हैं।
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ZU-23 एक सोवियत-युग की 23mm ट्विन-बैरल एंटी-एयरक्राफ्ट गन है, जिसे 1960 में बनाया गया था। यह गन 2.5 किलोमीटर की ऊंचाई और 2 किलोमीटर की दूरी तक हवाई लक्ष्यों को नष्ट कर सकती है। इसकी फायरिंग रेट 2000 राउंड प्रति मिनट है। ड्रोनों और निचली ऊंचाई पर उड़ने वाले विमानों के लिए यह काल है। विशेषज्ञों का कहना है कि ZU-23 जैसे हथियार आधुनिक युद्ध में ड्रोन खतरों से निपटने के लिए बेहद जरूरी हैं।