वंधामा नरसंहार ने 1998 में देश को हिला दिया था, जब 25 जनवरी की रात आतंकियों ने कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाकर 23 लोगों की हत्या कर दी थी। सेना ने एक महीने के भीतर ऑपरेशन चलाकर 11 आतंकियों को मार गिराया। यह घटना आज भी धार्मिक नरसंहार की सबसे दर्दनाक यादों में शामिल है...
📍New Delhi | 3 months ago
Pahalgam Attack: 25 जनवरी 1998 की वह रात देश की एकता और इंसानियत के माथे पर एक ऐसा ज़ख्म छोड़ गई जिसे आज भी याद करके रूह कांप जाती है। जम्मू-कश्मीर के वंधामा गांव में आतंकवादियों ने सुनियोजित तरीके से 23 कश्मीरी पंडितों की नृशंस हत्या कर दी। इस दिल दहला देने वाले नरसंहार ने न केवल देश को स्तब्ध किया, बल्कि यह सवाल भी उठाया कि आखिर कब तक निर्दोष नागरिक, खासकर अल्पसंख्यक, आतंक की भेंट चढ़ते रहेंगे?
Pahalgam Attack: क्या हुआ था उस दिन?
यह घटना गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर हुई थी, जब देश अपने संविधान और लोकतंत्र का उत्सव मनाने की तैयारी में जुटा था। वंधामा गांव, जो श्रीनगर के निकट गांदरबल क्षेत्र में आता है, लंबे समय से आतंकियों की निगाह में था क्योंकि यहां अब भी कुछ कश्मीरी पंडित परिवार डटे हुए थे। 25 जनवरी की रात, आतंकियों ने इन घरों पर हमला कर दिया। उन्होंने पहले परिवारों को बाहर बुलाया, फिर एक-एक करके 23 लोगों को मौत के घाट उतार दिया, जिनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे।
Pahalgam Attack: पूरे देश में शोक की लहर
इस नरसंहार के बाद पूरे देश में आक्रोश की लहर दौड़ गई। प्रधानमंत्री इंदर कुमार गुजराल और उनके प्रमुख सचिव एनएन वोहरा ने घटना के तीन दिन बाद ही हेलीकॉप्टर से गंदरबल पहुंचकर स्थिति का जायज़ा लिया। जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला और राज्यपाल जनरल केवी कृष्णा राव (सेवानिवृत्त) भी उनके साथ थे। यह दौरा एक स्पष्ट संकेत था कि सरकार इस नरसंहार को केवल एक और आतंकी हमला मानकर छोड़ नहीं देगी।
सेना पर उठे थे सवाल
हालांकि, इस हमले के बाद भारतीय सेना भी सवालों के घेरे में आ गई। घटना स्थल वंधामा की सुरक्षा की जिम्मेदारी 5 सेक्टर राष्ट्रीय राइफल्स के पास थी, लेकिन वहां नियमित गश्त और निगरानी नहीं हो रही थी। यह एक गंभीर चूक मानी गई।
लेफ्टिनेंट जनरल जेबीएस यादव, उस समय 8 माउंटेन डिवीजन के जनरल ऑफिसर कमांडिंग थे, उनकी जिम्मेदारी वंधामा क्षेत्र की थी। उन्होंने प्रधानमंत्री को भरोसा दिया कि एक महीने के भीतर हत्यारों को ढूंढ़कर सजा दी जाएगी। और सच में, एक महीने के अंदर सेना ने 12 में से 11 आतंकियों को ढेर कर दिया।

आईएसआई की साजिश
वंधामा नरसंहार कोई सामान्य आतंकी हमला नहीं था। इसके पीछे पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई की गहरी साजिश थी। उस वक्त जम्मू-कश्मीर में फारूक अब्दुल्ला की चुनी हुई सरकार थी और राज्य सामान्य स्थिति की ओर लौट रहा था। 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस था और 27 जनवरी से गुलमर्ग में विंटर गेम्स शुरू होने वाले थे। यह भारत के लिए दुनिया को यह संदेश देने का मौका था कि कश्मीर अब सामान्य स्थिति में लौट आया है।
लेकिन आईएसआई और आतंकियों को यह स्वीकार नहीं था। उन्होंने गणतंत्र दिवस से एक दिन पहले इस नरसंहार को अंजाम देकर पूरी कोशिश की कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह संदेश जाए कि कश्मीर अभी भी अस्थिर है।
अल्पसंख्यकों की टारगेट किलिंग
इस हमले का सबसे दुखद पहलू यह था कि इसे धार्मिक आधार पर अंजाम दिया गया। कश्मीरी पंडितों को खास तौर पर निशाना बनाया गया। यह न केवल एक आतंकी हमला था, बल्कि एक समुदाय विशेष को डराने और कश्मीर से पूरी तरह से खत्म करने की कोशिश थी। इसे साफ तौर पर एक ‘एथनिक क्लीनजिंग’ यानी जातीय सफाया कहा जा सकता है।
भारतीय सेना की जवाबी कार्रवाई
इस हमले के बाद सेना ने न केवल रणनीतिक रूप से जवाबी कार्रवाई की, बल्कि स्थानीय स्तर पर खुफिया तंत्र को भी मजबूत किया। सेना ने वंधामा क्षेत्र की सुरक्षा की जिम्मेदारी 70 इन्फैंट्री ब्रिगेड को सौंप दी, जिसे लद्दाख से यहां भेजा गया था।
ब्रिगेड की अगुआई कर रहे ब्रिगेडियर आरके शिवरैन ने आक्रामक रुख अपनाया और स्थानीय मुखबिरों की मदद से आतंकियों के छिपने की जगहों की जानकारी जुटाई। पता चला कि वंधामा के हत्यारे सफापोरा के ऊंचे पहाड़ी इलाकों में प्लास्टिक शीट से बने हाइड आउट्स और गुफाओं में छिपे थे। इन इलाकों से वे रात में नीचे आते थे और गांवों से खाना मांगते थे।
सेना ने इन इलाकों में सर्च ऑपरेशन चलाकर आतंकियों को ढूंढ़ निकाला और मुठभेड़ में लगभग सभी को खत्म कर दिया। सेना को बाद में आतंकियों के पास से जो दस्तावेज और डायरी मिली, उससे पता चला कि वंधामा नरसंहार की योजना तीन-चार महीने पहले ही बन चुकी थी। इसे बहुत ही सुनियोजित तरीके से अंजाम दिया गया ताकि इसका अधिकतम मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक प्रभाव हो।
वंधामा नरसंहार सिर्फ एक आतंकी घटना नहीं थी। यह भारत की धर्मनिरपेक्ष आत्मा पर हमला था। यह घटना इस बात की याद दिलाती है कि जब भी कश्मीर में शांति और विकास की ओर कोई कदम बढ़ता है, तब-तब पाकिस्तान और उसके पाले हुए आतंकी समूह इसे विफल करने के लिए नृशंस हमले करते हैं।
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आज 27 साल बाद भी वंधामा का दर्द भारत के दिल में जिंदा है। यह घटना न केवल कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार की याद दिलाती है। बल्कि इस बात का सबूत भी है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता—उसका मकसद केवल डर और नफरत फैलाना होता है।
Journalist & columnist specialising in wildlife/golf stories for Times of India, Chandigarh. I write a Monday column on wildlife for Dainik Bhaskar and contribute stories. I am a Sunday columnist on wildlife for The Hindustan Times.