📍नई दिल्ली | 3 weeks ago
India-China Border Dispute: चीन के किंगदाओ में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के रक्षामंत्रियों की बैठक के दौरान भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने चीन के रक्षा मंत्री एडमिरल डोंग जुन से मुलाकात की। उन्होंने चीन के रक्षा मंत्री एडमिरल डोंग जुन से मुलाकात में यह साफ संदेश दिया कि भारत-चीन सीमा विवाद का अब “स्थायी समाधान” होना चाहिए। उन्होंने बॉर्डर डिमार्केशन यानी वास्तविक और परिभाषित सीमा रेखा तय करने की जरूरत पर जोर दिया। भारत और चीन के बीच सीमा विवाद एक ऐसा मसला है, जो न सिर्फ दोनों देशों की विदेश नीति को प्रभावित करता है, बल्कि दक्षिण एशिया की शांति और स्थिरता पर भी गहरा असर डालता है। हालांकि यह पहला मौका नहीं है जब सीमा रेखा को स्थायी रूप से निर्धारित करने की बात हुई है। लेकिन इसकी जड़ें 200 साल पुराने ब्रिटिश नक्शों और “ग्रेट गेम” की कूटनीतिक चालों में छिपी हैं, जो आज भी भारत और चीन के बीच गहरी खाई का कारण बनी हुई हैं।
ब्रिटिश राज और ग्रेट गेम का हिस्सा
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद की शुरुआत 19वीं सदी में ब्रिटिश राज से जुड़ी है। उस समय, ब्रिटेन और रूस के बीच “ग्रेट गेम” (1813-1907) चल रहा था। यह एक तरह की भूराजनीतिक शतरंज थी, जिसमें ब्रिटेन और रूस मध्य एशिया में अपनी ताकत बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे। रूस के दबाव के जवाब में ब्रिटिश विदेश नीति बार-बार बदलती रहती थी। इस दौरान, ब्रिटिश हुकूमत ने कई बार भारत-तिब्बत सीमा को निर्धारित करने की कोशिश की, लेकिन हर बार असफल रही।
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रक्षा मंत्री ने कड़े शब्दों में कहा – “सीमा विवाद का स्थायी हल जरूरी है” | उन्होंने तनाव कम करने और विश्वास बहाली के लिए 4-सूत्रीय प्लान भी सुझाया।📍किंगदाओ में हुई अहम बातचीत | 🔗 पूरी खबर पढ़ें:https://t.co/ZPx8SeiY3N…— Raksha Samachar | रक्षा समाचार 🇮🇳 (@RakshaSamachar) June 27, 2025
1834 में, जम्मू की डोगरा सेना ने जनरल जोरावर सिंह के नेतृत्व में लद्दाख पर कब्जा किया। इसके बाद, चीन के किंग साम्राज्य ने लद्दाख पर हमला किया, लेकिन हार गई। 1842 में चुशुल की संधि हुई, जिसने कुछ समय के लिए शांति स्थापित की। लेकिन 19वीं सदी के मध्य में, पहले एंग्लो-सिख युद्ध के बाद ब्रिटिश ने जम्मू और कश्मीर पर कब्जा कर लिया। इसके बाद, ब्रिटिश ने 1846, 1865, 1873, 1899 और 1914 में सीमा निर्धारित करने के लिए पांच बार प्रस्ताव रखे। हर बार चीन ने इन प्रस्तावों को ठुकरा दिया।
1847 में, ब्रिटिश अधिकारी मेजर अलेक्जेंडर कनिंघम सीमा निर्धारण की कोशिश की थी। उन्होंने ने अपनी किताब लद्दाख: फिजिकल, स्टैटिस्टिकल एंड जियोग्राफिकल (1854) में लिखा, “लद्दाख और तिब्बत के बीच सीमा का निर्धारण बहुत महत्वपूर्ण था।” लेकिन यह काम कभी पूरा नहीं हुआ। ब्रिटिश और रूस के बीच भू-राजनीतिक खेल में कश्मीर, शिनजियांग और अफगानिस्तान को बफर जोन बनाया गया। लद्दाख और उसका उत्तर-पूर्वी हिस्सा, जिसे अक्साई चिन कहते हैं, भी ऐसा ही एक बफर जोन था।
आजादी के बाद बढ़ीं मुश्किलें
1947 में भारत की आजादी और 1949 में चीन के तिब्बत पर कब्जा करने के बाद यह मसला और पेचीदा हो गया। दोनों देशों के बीच कोई स्पष्ट सीमा रेखा नहीं थी। इसकी जगह, 3,448 किलोमीटर लंबी लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (LAC) बनाई गई, जो हिमालय की रिजलाइन के साथ पूर्व-पश्चिम दिशा में फैली है। यह एलएसी एक तरह से दोनों देशों के बीच सीमा की तरह काम करती है। लेकिन इसमें कई जगहों पर दोनों देशों के अपने-अपने दाावे हैं। जिसके कारण विवाद बना रहता है। दोनों देशों की सेनाएं इस एलएसी पर स्टेटस को (यथास्थिति) बनाए रखने की कोशिश करती हैं, लेकिन फिर भी तनाव बना रहता है।
1962 में भारत और चीन के बीच युद्ध हुआ, जिसमें भारत को हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद भी कई बार सैन्य टकराव हुए। 1986 में सुमद्रोंग चू, 2013 में देपसांग, 2014 में चुमुर, 2017 में डोकलाम और 2020 में पूर्वी लद्दाख में गलवान घाटी में हिंसक झड़पें हुईं। इन टकरावों ने दोनों देशों के बीच तनाव को और बढ़ाने का काम किया।
पहले भी हुई हैं बातचीत की कोशिशें
सीमा विवाद को सुलझाने की कोशिशें नई नहीं हैं। ब्रिटिश काल में 1846 से 1914 तक कई बार ऐसी कोशिशें हुईं, लेकिन चीन ने हर बार मना कर दिया। आजादी के बाद भी कई बार बातचीत हुई, लेकिन कोई ठोस नतीजा नहीं निकला।
1960 में, चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री झोउ एनलाई भारत आए और एक “जहां है जैसा है” (as is where is) के आधार पर सीमा समझौते का प्रस्ताव रखा। इसका मतलब था कि चीन अरुणाचल प्रदेश पर भारत के नियंत्रण को मानेगा, बशर्ते भारत अक्साई चिन को छोड़ दे। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और चीन से अक्साई चिन खाली करने को कहा।
1959 में, सोवियत नेता निकिता ख्रुश्चेव ने भी माओ जेदोंग और झोउ एनलाई से भारत के साथ विवाद सुलझाने की सलाह दी थी। लेकिन यह सलाह भी बेकार गई।
1979 में, जब अटल बिहारी वाजपेयी जो उस समय मोरारजी देसाई सरकार में विदेश मंत्री थे, चीन गए, तो डेंग शियाओपिंग ने फिर से इस “पैकेज डील” की बात उठाई। लेकिन कुछ महीनों बाद भारत में सरकार गिर गई। 1988 में, डेंग ने राजीव गांधी से इस डील की बात दोहराई, लेकिन भारत ने कोई जवाब नहीं दिया। इसके बाद दोनों देशों ने एक जॉइंट वर्किंग ग्रुप (JWG) बनाया, जिसका मकसद सीमा मसले को सुलझाना था।
मैप्स और कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मेजर्स
1996 में, भारत और चीन ने अपनी-अपनी सीमा की परसेप्शन के आधार पर नक्शों की अदला-बदली करने का फैसला किया। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और सिक्किम के लिए मैप्स का आदान-प्रदान हुआ, लेकिन अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख के लिए चीन इस वायदा से पीछे हट गया।
2003 में जॉइंट वर्किंग ग्रुप की जगह स्पेशल रिप्रेजेंटेटिव्स (SRs) मैकेनिज्म बनाया गया। पिछले साल अक्टूबर में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने लद्दाख में सैन्य टकराव खत्म करने का फैसला किया और स्पेशल रिप्रेजेंटेटिव्स को एक “निष्पक्ष, उचित और दोनों पक्षों को स्वीकार्य” समाधान खोजने का निर्देश दिया।
2005 में, LAC पर कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मेजर्स (CBMs) लागू करने पर सहमति बनी। इसमें सैनिकों को आत्मसंयम बरतने और आमने-सामने की स्थिति में टकराव रोकने के लिए जरूरी कदम उठाने को कहा गया। यह भी तय हुआ कि दोनों पक्ष एक-दूसरे के खिलाफ बल का इस्तेमाल नहीं करेंगे। लेकिन 15-16 जून 2020 में गलवान घाटी में हुई हिंसक झड़प में इन नियमों का उल्लंघन हुआ।
लद्दाख के यूटी स्टेटस का चीन ने किया विरोध
2019 में जब भारत ने जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाकर लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाने का फैसला किया, तो चीन ने इसका विरोध किया। तब चीन ने इसका विरोध किया और कहा कि यह “बॉर्डर की स्थिति बदलने” जैसा है। उसने दावा किया कि इससे सीमा का स्टेट्स बदल गया है। जबकि भारत ने साफ किया कि यह उसका आंतरिक मामला है और एलएसी पर कोई बदलाव नहीं किया गया। लेकिन हकीकत यह है कि एलएसी पर कोई स्पष्ट सीमा है ही नहीं, जिसके आधार पर ऐसा दावा किया जा सके।
आज क्या हैं हालात
आज भारत और चीन के बीच एलएसी पर तनाव बना हुआ है। दोनों देशों की सेनाएं अपनी-अपनी पोजीशन्स पर तैनात हैं, और समय-समय पर छोटे-मोटे टकराव की खबरें आती रहती हैं। राजनाथ सिंह ने किंगदाओ में चीन के रक्षा मंत्री से मुलाक़ात के दौरान यही मुद्दा दोहराया, “अब समय आ गया है कि सीमा निर्धारण को लेकर एक स्पष्ट, स्थायी और पारदर्शी व्यवस्था हो।” राजनाथ सिंह का “स्थायी समाधान” का सुझाव एक सकारात्मक कदम है, लेकिन इतिहास बताता है कि इस मसले का हल इतना आसान नहीं है। इसके लिए दोनों देशों को न केवल अपने वर्तमान हितों को संतुलित करना होगा, बल्कि ऐतिहासिक और भौगोलिक जटिलताओं पर गौर करना होगा।
यह विवाद न केवल भारत और चीन के रिश्तों को प्रभावित करता है, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी इसका असर पड़ता है। एळएसी पर शांति बनाए रखना दोनों देशों के लिए जरूरी है, क्योंकि यह न सिर्फ उनकी सुरक्षा, बल्कि पूरे क्षेत्र की स्थिरता के लिए महत्वपूर्ण है।
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